Monday, March 9, 2009

चलना, चलना, मुदाम चलना

इकबाल

डरते-डरते दमे-सहर से
तारे कहने लगे कमर से

नज्जारे रहे वही फलक पर
हम थक भी गए चमक-चमक कर

काम अपना है सुबह-ओ-शाम चलना
चलना, चलना, मुदाम चलना

बेताब है इस जहां की हर शै
कहते हैं जिसे सुकूं नहीं है

होगा कभी खत्म ये सफर क्या
मंजिल कभी आएगी नजर क्या

कहने लगा चांद, हमनशीनो
ऐ मजरअ-ए-शब के खोशाचीनो

जुंबिश से है जिन्दगी जहां की
ये रस्मे-कदीम है यहां की

इस राह में मुकाम बेमहल है
पोशीदा करार में अजल है

चलने वाले निकल गए हैं
जो ठहरे जरा, कुचल गए हैं

अंजाम है इस खिराम का हुस्न
आगाज है इश्क, इन्तिहा हुस्न

[ दमे-सहर - प्रभात, कमर - चांद, मुदाम - निरंतर, मजरअ-ए-शब - रात की खेती, खोशाचीनो - बालियां चुनने वालो, रस्मे-कदीम - प्राचीन कथा, बेमहल - व्यर्थ, पोशीदा - निहित, अजल - मृत्यु, खिराम - मंद गति ]

No comments: