Sunday, March 21, 2010

बलिदान से पहेले साथियों को अन्तिम पत्र


साथियों,

स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता. लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूं, कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता.

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदर्शो और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है-इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता.

आज मेरी कमजोरीयॉं जनता के सामने नहीं है. अगर मैं फॉंसी से बच गया तो वे जाहिर हो जायेंगी और क्रान्ति का प्रतीक-चिह्न मद्विम पड जायेगा या सम्भवतः मिट ही जाये. लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फॉंसी चढने की सूरत में हिंन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ जायेगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते के बात नहीं रहेंगी.

हॉं, एक विचार आज भी मेरे मन में आता हैं कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवॉं भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतन्त्र, जिन्दा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और में अपनी हसरतें पूरी कर सकता.

इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फॉंसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक सौभाग्यशाळी कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर गर्व है. अब तो बडी बेताबी से अन्तिम परीक्षा का इन्तजार है. कामना है कि यह और नजदीक हो जाये.

आपका साथी,
भगतसिंह
(भगतसिंह ने फांसी पर चढने से पहेले अपने साथीयों को लिखा आखरी पैगाम जो उन्हों ने 22 मार्च, 1931 को लिखा था...)

No comments: