दोस्तो,
प्राचीन काल के चीन में तासो-बू नाम के एक संत हो गये. उनके पास चूंग-सिन नामक एक शिष्य आकर रहेने लगा. उसने गुरुवर की कई दिनो तक सेवा की. फिर एक दिन उसने तासो-बू के समक्ष अपनी द्विधा प्रस्तुत की.
चूंग-सिन ने गुरुजी से कहा, 'मैं आपके पास धर्म का रहस्य समजने आया हूं. लेकिन इतने दिनो में आपने मुझे कुछ नहीं बताया. आप हंमेशा चूप रहेते है.'
शिष्य़ की बात सुनकर तासो-बू के मुखारविंद पर निर्मण हास्य की लहेर फिर गई.
चूंग-सिनने फिर कहा, 'मैनें खाया कि नहीं? मुझे नींद आती है कि नहीं? मुझे यहां अच्छा लगता है कि नहीं? मुझे घर की याद आती है कि नहीं? मैं यहां प्रसन्नता का अनुभव करतां हूं या नहीं? आप हररोज ऐसी सामान्य बाते मुझे पूछते रहेते हों, लेकिन आपने मुझे धर्म और ज्ञान के बारे में तो कुछ बताया हीं नहीं.'
शिष्य की ये बातें सुनकर तासो-बू बोले, 'पुत्र, तुम मेरे पास आये हो तब से हररोज मैंने तुम्हें धर्म का रहस्य बताया हैं. तुम मेरे लिये चा का प्याला लाये तब मैंने तुम्हारा सस्मित स्वागत किया है. तुमने मुझे वंदन किया तो बदले में मैंने इसका सहर्ष स्वीकार किया है और शुभकामना प्रदान की हैं...'
गुरुजी की बाते शिष्य की समज में नहीं आती थी. लेकिन उसके बाद तासो-बू ने जो बात कही वो शिष्य के साथ-साथे हमें भी धर्म का अर्थ समझाती है.
तासो-बू ने कहा, 'पुत्र, तुम दैनिक कार्य को धर्म से अलग समझते हों. दरस्सल ये हीं तुम्हारा भ्रम है. धर्म ही दैनिक कार्य है और दैनिक कार्य में धर्म है. अपने हिस्से का कार्य सदभाव और धर्मभाव से करना ही सच्चा धर्म है.'
सिर्फ चार कथन में तासो-बू ने धर्म का अर्थ बता दिया.
* * * * *
मेरे प्यारे दोस्तो,
पवित्र-पुण्य श्रावण का शुभारंभ हो रहा है. जप और तप के इस मास में आईये एक संकल्प करे. बडा नहीं, छोटा. अक्सर हम बडी-बडी बाते करने में छोटी छोटी बातो की उपेक्षा करते है. आईये, एक छोटा संकल्प करे. हम हमारे दोस्तो और साथीदारो के साथ सदभाव दिखायेंगे. सदभाव से पेश आने का उत्तम मार्ग है-किसी भी व्यक्ति के दोष का दर्शन नहीं करना. दोस्तो और साथीदारो में रहे अच्छे गुणो को देखना. कोई इन्सान पूर्ण पुरुषोत्तम नहीं हैं. न मैं, न आप. स्वाभावगतः दोष हम सभी मैं है. लेकिन ज्यादातर हम अपने गुण देखते हैं और दूसरो के दोष. नीति कहेती है कि जीवन को सुधारना है तो दूसरो के गुण देखो और अपने दोष. अपनी शेरबाजार की भाषा में कहे तो ये फायदे का सोदा है. प्यारे साथीदार, भार्गव भाई की जुबान में कहे तो साला, इस सोदे में तो फायदा ही फायदा हैं. इसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिये. वो कैसे? दुसरो के गुण देखने से हमे कुछ अच्छा सीखने को मिलता है और अपने दोष देखने से हमें अपने खुद के जीवन को सुधारने में मदद मिलती है. कहिये, है ना प्रोफिट ही प्रोफिट.........
प्राचीन काल के चीन में तासो-बू नाम के एक संत हो गये. उनके पास चूंग-सिन नामक एक शिष्य आकर रहेने लगा. उसने गुरुवर की कई दिनो तक सेवा की. फिर एक दिन उसने तासो-बू के समक्ष अपनी द्विधा प्रस्तुत की.
चूंग-सिन ने गुरुजी से कहा, 'मैं आपके पास धर्म का रहस्य समजने आया हूं. लेकिन इतने दिनो में आपने मुझे कुछ नहीं बताया. आप हंमेशा चूप रहेते है.'
शिष्य़ की बात सुनकर तासो-बू के मुखारविंद पर निर्मण हास्य की लहेर फिर गई.
चूंग-सिनने फिर कहा, 'मैनें खाया कि नहीं? मुझे नींद आती है कि नहीं? मुझे यहां अच्छा लगता है कि नहीं? मुझे घर की याद आती है कि नहीं? मैं यहां प्रसन्नता का अनुभव करतां हूं या नहीं? आप हररोज ऐसी सामान्य बाते मुझे पूछते रहेते हों, लेकिन आपने मुझे धर्म और ज्ञान के बारे में तो कुछ बताया हीं नहीं.'
शिष्य की ये बातें सुनकर तासो-बू बोले, 'पुत्र, तुम मेरे पास आये हो तब से हररोज मैंने तुम्हें धर्म का रहस्य बताया हैं. तुम मेरे लिये चा का प्याला लाये तब मैंने तुम्हारा सस्मित स्वागत किया है. तुमने मुझे वंदन किया तो बदले में मैंने इसका सहर्ष स्वीकार किया है और शुभकामना प्रदान की हैं...'
गुरुजी की बाते शिष्य की समज में नहीं आती थी. लेकिन उसके बाद तासो-बू ने जो बात कही वो शिष्य के साथ-साथे हमें भी धर्म का अर्थ समझाती है.
तासो-बू ने कहा, 'पुत्र, तुम दैनिक कार्य को धर्म से अलग समझते हों. दरस्सल ये हीं तुम्हारा भ्रम है. धर्म ही दैनिक कार्य है और दैनिक कार्य में धर्म है. अपने हिस्से का कार्य सदभाव और धर्मभाव से करना ही सच्चा धर्म है.'
सिर्फ चार कथन में तासो-बू ने धर्म का अर्थ बता दिया.
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मेरे प्यारे दोस्तो,
पवित्र-पुण्य श्रावण का शुभारंभ हो रहा है. जप और तप के इस मास में आईये एक संकल्प करे. बडा नहीं, छोटा. अक्सर हम बडी-बडी बाते करने में छोटी छोटी बातो की उपेक्षा करते है. आईये, एक छोटा संकल्प करे. हम हमारे दोस्तो और साथीदारो के साथ सदभाव दिखायेंगे. सदभाव से पेश आने का उत्तम मार्ग है-किसी भी व्यक्ति के दोष का दर्शन नहीं करना. दोस्तो और साथीदारो में रहे अच्छे गुणो को देखना. कोई इन्सान पूर्ण पुरुषोत्तम नहीं हैं. न मैं, न आप. स्वाभावगतः दोष हम सभी मैं है. लेकिन ज्यादातर हम अपने गुण देखते हैं और दूसरो के दोष. नीति कहेती है कि जीवन को सुधारना है तो दूसरो के गुण देखो और अपने दोष. अपनी शेरबाजार की भाषा में कहे तो ये फायदे का सोदा है. प्यारे साथीदार, भार्गव भाई की जुबान में कहे तो साला, इस सोदे में तो फायदा ही फायदा हैं. इसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिये. वो कैसे? दुसरो के गुण देखने से हमे कुछ अच्छा सीखने को मिलता है और अपने दोष देखने से हमें अपने खुद के जीवन को सुधारने में मदद मिलती है. कहिये, है ना प्रोफिट ही प्रोफिट.........
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