Thursday, September 29, 2011

संकीर्ण न मन हो, माथा रहे यह ऊंचा...


हे नाथ, निवेदन यही एक है मेरा,
दुख-सुख को सहने का तुम मुझको बल दो,
दो मुझे शक्ति इतनी कि सफल हो सेवा,
मैं किसी अकिंचन को न कभी सताऊं,
बलशाली के आगे न कभी डर जाऊं,
संकीर्ण न मन हो, माथा रहे यह ऊंचा,
मैं तेरे ही चरणो में शीश नवाऊं,
बस रहे सदा ही मुझे भरोसा तेरा.

रवींद्रनाथ ठाकुर